Wednesday, May 18, 2016

प्रेम (Prem) - अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ (Ayodhya Singh Upadhyay 'Hariaudh')

उमंगों भरा दिल किसी का न टूटे।
पलट जायँ पासे मगर जुग न फूटे।
कभी संग निज संगियों का न छूटे।
हमारा चलन घर हमारा न लूटे।
सगों से सगे कर न लेवें किनारा।
फटे दिल मगर घर न फूटे हमारा।1।

कभी प्रेम के रंग में हम रँगे थे।
उसी के अछूते रसों में पगे थे।
उसी के लगाये हितों में लगे थे।
सभी के हितू थे सभी के सगे थे।
रहे प्यार वाले उसी के सहारे।
बसा प्रेम ही आँख में था हमारे।2।

रहे उन दिनों फूल जैसा खिले हम।
रहे सब तरह के सुखों से हिले हम।
मिलाये, रहे दूध जल सा मिले हम।
बनाते न थे हित हवाई किले हम।
लबालब भरा रंगतों में निराला।
छलकता हुआ प्रेम का था पियाला।3।

रहे बादलों सा बरस रंग लाते।
रहे चाँद जैसी छटाएँ दिखाते।
छिड़क चाँदनी हम रहे चैन पाते।
सदा ही रहे सोत रस का बहाते।
कलाएँ दिखा कर कसाले किये कम।
उँजाला अँधेरे घरों के रहे हम।4।

रहे प्यार का रंग ऐसा चढ़ाते।
न थे जानवर जानवरपन दिखाते।
लहू-प्यास-वाले, लहू पी न पाते।
बड़े तेजश्-पंजे न पंजे चलाते।
न था बाघपन बाघ को याद होता।
पड़े सामने साँपपन साँप खोता।5।

कसर रख न जीकी कसर थी निकलती।
बला डाल कर के बला थी न टलती।
मसल दिल किसी का, न थी, दाल गलती।
बुरे फल न थी चाह की बेलि फलता।
न थे जाल हम तोड़ते जाल फैला।
धुले मैल फिर दिल न होता था मैला।6।

मगर अब पलट है गया रंग सारा।
बहुत बैर ने पाँव अब है पसारा।
हमें फूट का रह गया है सहारा।
बजा है रहे अनबनों का नगारा।
भँवर में पड़ी, है बहुत डगमगाती।
चलाये मगर नाव है चल न पाती।7।

हमें जाति के प्रेम से है न नाता।
कहाँ वह नहीं ठोकरें आज खाता।
कहीं नीचपन है उसे नोच पाता।
कहीं ढोंग है नाच उसको नचाता।
कभी पालिसी बेतरह है सताती।
कभी छेदती है बुरी छूत छाती।8।

बहुत जातियों की बहुत सी सभाएँ।
बनीं हिन्दुओं के लिए हैं बलाएँ।
विपत, सैकड़ों पंथ मत क्यों न ढाएँ।
अगर एकता रंग में रँग न पाएँ।
कटे चाँद अपनी कला क्यों न खोता।
गये फूट हीरा कनी क्यों न होता।9।

बनाई गयी चार ही जातियाँ हैं।
भलाई भरी वे भली थातियाँ हैं।
किसी एक दल की गिनी पाँतियाँ हैं।
भरी एकता से कई छातियाँ हैं।
मगर बँट गये तंग बन तन गयी हैं।
किसी कोढ़ की खाज वे बन गयी हैं।10।

अगर लोग निज जाति को जाति जानें।
बने अंग के अंग, तन को न मानें।
लड़ी के लिए लड़ पड़ें भौंह तानें।
न माला न मोती न लें चीन्ह खानें।
भला तो सदा मुँह पिटेंगे न कैसे।
कलेजे में काँटे छिटेंगे न कैसे।11।

सभी जाति है राग अपना सुनाती।
उमंगों भरे है बहुत गीत गाती।
बता भेद, है गत अनूठे बजाती।
मगर धुन किसी की नहीं मेल खाती।
सभी की अलग ही सुनाती हैं तानें।
लयें बन रही हैं कुटिलता की कानें।12।

बड़े काम की बन बहुत काम आती।
सभा जो सभी जातियों को मिलाती।
मगर आग है वह घरों में लगाती।
वही एकता का गला है दबाती।
उसी ने बचे प्रेम को पीस डाला।
उसी ने हितों का दिवाला निकाला।13।

बरहमन बड़े घाघ, छत्री छुरे हैं।
कुटिल वैस हैं, शूद्र सब से बुरे हैं।,
यही गा रहे आज बन बेसुरे हैं।
गये प्रेम के टूट सारे धुरे हैं।
किसी से किसी का नहीं दिल मिला है।
जहाँ देखिए एक नया गुल खिला है।14।

कहीं रंग में मतलबों के रँगा है।
कहीं लाभ की चाशनी में पगा है।
कहीं छल कपट औ कहीं पर दगा है।
कहीं लाग के लाग से वह लगा है।
कहीं प्रेम सच्चा नहीं है दिखाता।
समय नित उसे धूल में है मिलाता।15।

बही प्रेम धारा पटी जा रही है।
पली बेलि हित की कटी जा रही है।
बँधी धाक सारी घटी जा रही है।
बँची एकता नित लटी जा रही है।
गयी बे तरह मूँद कर आँख लूटी।
बला हाथ से जाति अब भी न छूटी।16।

करोड़ों मुसलमान बन छोड़ बैठे।
कई लाख, नाता बहँक तोड़ बैठे।
अहिन्दू कहा, मुँह बहुत मोड़ बैठे।
कई आज भी हैं किये होड़ बैठे।
उबर कर उबरते नहीं हैं उबारे।
नहीं कान पर रेंगती जूँ हमारे।17।

अगर नाम हिन्दू हमें है न प्यारा।
गरम रह गया जो न लोहू हमारा।
अगर आँख का है चमकता न तारा।
अगर बन्द है हो गयी प्रेम-धारा।
बहुत ही दले जायँगे तो न कैसे।
रसातल चले जायँगे तो न कैसे।18।

मगर आँख कोई नहीं खोल पाता।
कलेजा किसी का नहीं चोट खाता।
किसी का नहीं जी तड़पता दिखाता।
लहू आँख से है किसी के न आता।
चमक खो, बिखर है रहा हित-सितारा।
उजड़ है रहा प्रेम-मन्दिर हमारा।19।

बहुत कह गये अब अधिक है न कहना।
बढ़ाएँगे अब हम न अपना उलहना।
भला है नहीं बन्द कर आँख रहना।
उसे क्यों सहें चाहिए जो न सहना।
मिलें खोल कर दिल दिलों को मिलाएँ।
जगें और जग हिन्दुओं को जगाएँ।20।

Sunday, September 27, 2015

इन्द्र जिमि जम्भ पर (Indra Jimi Jambh Par) - भूषण ( Bhushan)

इन्द्र जिमि जंभ पर, बाडब सुअंभ पर,
रावन सदंभ पर, रघुकुल राज हैं।

पौन बारिबाह पर, संभु रतिनाह पर,
ज्यौं सहस्रबाह पर राम-द्विजराज हैं॥

दावा द्रुम दंड पर, चीता मृगझुंड पर,
'भूषन वितुंड पर, जैसे मृगराज हैं।

तेज तम अंस पर, कान्ह जिमि कंस पर,
त्यौं मलिच्छ बंस पर, सेर शिवराज हैं॥

ऊंचे घोर मंदर के अंदर रहन वारी,
ऊंचे घोर मंदर के अंदर रहाती हैं।

कंद मूल भोग करैं, कंद मूल भोग करैं,
तीन बेर खातीं, ते वे तीन बेर खाती हैं॥

भूषन शिथिल अंग, भूषन शिथिल अंग,
बिजन डुलातीं ते वे बिजन डुलाती हैं।

'भूषन भनत सिवराज बीर तेरे त्रास,
नगन जडातीं ते वे नगन जडाती हैं॥

छूटत कमान और तीर गोली बानन के,
मुसकिल होति मुरचान की ओट मैं।

ताही समय सिवराज हुकुम कै हल्ला कियो,
दावा बांधि परा हल्ला बीर भट जोट मैं॥

'भूषन' भनत तेरी हिम्मति कहां लौं कहौं
किम्मति इहां लगि है जाकी भट झोट मैं।

ताव दै दै मूंछन, कंगूरन पै पांव दै दै,
अरि मुख घाव दै-दै, कूदि परैं कोट मैं॥

बेद राखे बिदित, पुरान राखे सारयुत,
रामनाम राख्यो अति रसना सुघर मैं।

हिंदुन की चोटी, रोटी राखी हैं सिपाहिन की,
कांधे मैं जनेऊ राख्यो, माला राखी गर मैं॥

मीडि राखे मुगल, मरोडि राखे पातसाह,
बैरी पीसि राखे, बरदान राख्यो कर मैं।

राजन की हद्द राखी, तेग-बल सिवराज,
देव राखे देवल, स्वधर्म राख्यो घर मैं॥

Thursday, August 6, 2015

चारु चंद्र की चंचल किरणें ( Charu Chandra Ki Chanchal Kirnein ) - मैथिलीशरण गुप्त (Maithilisharan Gupt)

चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में,
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में।
पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,
मानों झूम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥

पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना,
जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर, धीर-वीर निर्भीकमना,
जाग रहा यह कौन धनुर्धर, जब कि भुवन भर सोता है?
भोगी कुसुमायुध योगी-सा, बना दृष्टिगत होता है॥

किस व्रत में है व्रती वीर यह, निद्रा का यों त्याग किये,
राजभोग्य के योग्य विपिन में, बैठा आज विराग लिये।
बना हुआ है प्रहरी जिसका, उस कुटीर में क्या धन है,
जिसकी रक्षा में रत इसका, तन है, मन है, जीवन है!

मर्त्यलोक-मालिन्य मेटने, स्वामि-संग जो आई है,
तीन लोक की लक्ष्मी ने यह, कुटी आज अपनाई है।
वीर-वंश की लाज यही है, फिर क्यों वीर न हो प्रहरी,
विजन देश है निशा शेष है, निशाचरी माया ठहरी॥

कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता;
आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता।
बीच-बीच मे इधर-उधर निज दृष्टि डालकर मोदमयी,
मन ही मन बातें करता है, धीर धनुर्धर नई नई-

क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;
है स्वच्छन्द-सुमंद गंध वह, निरानंद है कौन दिशा?
बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप,
पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप!

है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर,
रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर।
और विरामदायिनी अपनी, संध्या को दे जाता है,
शून्य श्याम-तनु जिससे उसका, नया रूप झलकाता है।

सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है,
अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है!
अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है,
पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥

तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके, पर है मानो कल की बात,
वन को आते देख हमें जब, आर्त्त अचेत हुए थे तात।
अब वह समय निकट ही है जब, अवधि पूर्ण होगी वन की
किन्तु प्राप्ति होगी इस जन को, इससे बढ़कर किस धन की!

और आर्य को, राज्य-भार तो, वे प्रजार्थ ही धारेंगे,
व्यस्त रहेंगे, हम सब को भी, मानो विवश विसारेंगे।
कर विचार लोकोपकार का, हमें न इससे होगा शोक;
पर अपना हित आप नहीं क्या, कर सकता है यह नरलोक!

Tuesday, August 4, 2015

मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझानेवाला ( Mera Desh Jal Raha, Koi Nahin Bujhanewala ) - शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ (Shivmangal Singh 'Suman')

घर-आंगन में आग लग रही।
सुलग रहे वन -उपवन,
दर दीवारें चटख रही हैं
जलते छप्पर- छाजन।
तन जलता है , मन जलता है 
जलता जन-धन-जीवन,
एक नहीं जलते सदियों से
जकड़े गर्हित बंधन।
दूर बैठकर ताप रहा है,
आग लगानेवाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला।


भाई की गर्दन पर
भाई का तन गया दुधारा
सब झगड़े की जड़ है
पुरखों के घर का बँटवारा
एक अकड़कर कहता
अपने मन का हक ले लेंगें,
और दूसरा कहता तिल
भर भूमि न बँटने देंगें।
पंच बना बैठा है घर में,
फूट डालनेवाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला।

दोनों के नेतागण बनते
अधिकारों के हामी,
किंतु एक दिन को भी 
हमको अखरी नहीं गुलामी।
दानों को मोहताज हो गए
दर-दर बने भिखारी,
भूख, अकाल, महामारी से
दोनों की लाचारी।
आज धार्मिक बना,
धर्म का नाम मिटानेवाला
मेरा देश जल रहा, 
कोई नहीं बुझानेवाला।

होकर बड़े लड़ेंगें यों
यदि कहीं जान मैं लेती,
कुल-कलंक-संतान
सौर में गला घोंट मैं देती।
लोग निपूती कहते पर
यह दिन न देखना पड़ता,
मैं न बंधनों में सड़ती
छाती में शूल न गढ़ता।
बैठी यही बिसूर रही माँ,
नीचों ने घर घाला,
मेरा देश जल रहा, 
कोई नहीं बुझानेवाला।

भगतसिंह, अशफाक,
लालमोहन, गणेश बलिदानी,
सोच रहें होंगें, हम सबकी
व्यर्थ गई कुरबानी
जिस धरती को तन की 
देकर खाद खून से सींचा ,
अंकुर लेते समय उसी पर
किसने जहर उलीचा।
हरी भरी खेती पर ओले गिरे,
पड़ गया पाला,
मेरा देश जल रहा, 
कोई नहीं बुझानेवाला।

जब भूखा बंगाल, 
तड़पमर गया ठोककर किस्मत,
बीच हाट में बिकी
तुम्हारी माँ - बहनों की अस्मत।
जब कुत्तों की मौत मर गए
बिलख-बिलख नर-नारी ,
कहाँ कई थी भाग उस समय
मरदानगी तुम्हारी।
तब अन्यायी का गढ़ तुमने 
क्यों न चूर कर डाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला।


पुरखों का अभिमान तुम्हारा
और वीरता देखी,
राम - मुहम्मद की संतानों !
व्यर्थ न मारो शेखी।
सर्वनाश की लपटों में
सुख-शांति झोंकनेवालों !
भोले बच्चें, अबलाओ के
छुरा भोंकनेवालों !
ऐसी बर्बरता का
इतिहासों में नहीं हवाला,
मेरा देश जल रहा, 
कोई नहीं बुझानेवाला।

घर-घर माँ की कलख
पिता की आह, बहन का क्रंदन,
हाय , दूधमुँहे बच्चे भी
हो गए तुम्हारे दुश्मन ?
इस दिन की खातिर ही थी
शमशीर तुम्हारी प्यासी ?
मुँह दिखलाने योग्य कहीं भी
रहे न भारतवासी।
हँसते हैं सब देख
गुलामों का यह ढंग निराला।
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला।


जाति-धर्म गृह-हीन
युगों का नंगा-भूखा-प्यासा,
आज सर्वहारा तू ही है
एक हमारी आशा।
ये छल छंद शोषकों के हैं
कुत्सित, ओछे, गंदे,
तेरा खून चूसने को ही
ये दंगों के फंदे।
तेरा एका गुमराहों को
राह दिखानेवाला ,
मेरा देश जल रहा, 
कोई नहीं बुझानेवाला।

Monday, August 3, 2015

बीती विभावरी जाग री ( Biti Vibhavri Jag Ri ) - जयशंकर प्रसाद (Jaishankar Prasad)

बीती विभावरी जाग री!

अम्बर पनघट में डुबो रही
तारा-घट ऊषा नागरी!

खग-कुल कुल-कुल-सा बोल रहा
किसलय का अंचल डोल रहा
लो यह लतिका भी भर ला‌ई-
मधु मुकुल नवल रस गागरी

अधरों में राग अमंद पिए
अलकों में मलयज बंद किए
तू अब तक सो‌ई है आली
आँखों में भरे विहाग री!

Sunday, August 2, 2015

मुक्ति की आकांक्षा ( Mukti Ki Aakansha ) - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना (Sarveshwardayal Saxena)

चिडि़या को लाख समझाओ
कि पिंजड़े के बाहर
धरती बहुत बड़ी है, निर्मम है,
वहाँ हवा में उन्हेंर
अपने जिस्मब की गंध तक नहीं मिलेगी।
यूँ तो बाहर समुद्र है, नदी है, झरना है,
पर पानी के लिए भटकना है,
यहाँ कटोरी में भरा जल गटकना है।
बाहर दाने का टोटा है,
यहाँ चुग्गाह मोटा है।
बाहर बहेलिए का डर है,
यहाँ निर्द्वंद्व कंठ-स्व र है।
फिर भी चिडि़या 
मुक्ति का गाना गाएगी,
मारे जाने की आशंका से भरे होने पर भी,
पिंजरे में जितना अंग निकल सकेगा, निकालेगी,
हरसूँ ज़ोर लगाएगी
और पिंजड़ा टूट जाने या खुल जाने पर उड़ जाएगी।

Friday, July 31, 2015

चलना हमारा काम है ( Chalna Hamara Kaam Hai ) - शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ (Shivmangal Singh 'Suman')

गति प्रबल पैरों में भरी 
फिर क्यों रहूं दर दर खडा 
जब आज मेरे सामने 
है रास्ता इतना पडा 
जब तक न मंजिल पा सकूँ, 
तब तक मुझे न विराम है, 
चलना हमारा काम है। 

कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया 
कुछ बोझ अपना बँट गया 
अच्छा हुआ, तुम मिल गई 
कुछ रास्ता ही कट गया 
क्या राह में परिचय कहूँ, 
राही हमारा नाम है, 
चलना हमारा काम है। 

जीवन अपूर्ण लिए हुए 
पाता कभी खोता कभी 
आशा निराशा से घिरा, 
हँसता कभी रोता कभी 
गति-मति न हो अवरूद्ध, 
इसका ध्यान आठो याम है, 
चलना हमारा काम है। 

इस विशद विश्व-प्रहार में 
किसको नहीं बहना पडा 
सुख-दुख हमारी ही तरह, 
किसको नहीं सहना पडा 
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ, 
मुझ पर विधाता वाम है, 
चलना हमारा काम है। 

मैं पूर्णता की खोज में 
दर-दर भटकता ही रहा 
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ 
रोडा अटकता ही रहा 
निराशा क्यों मुझे? 
जीवन इसी का नाम है, 
चलना हमारा काम है। 

साथ में चलते रहे 
कुछ बीच ही से फिर गए 
गति न जीवन की रूकी 
जो गिर गए सो गिर गए 
रहे हर दम, 
उसी की सफलता अभिराम है, 
चलना हमारा काम है। 

फकत यह जानता 
जो मिट गया वह जी गया
मूंदकर पलकें सहज 
दो घूँट हँसकर पी गया 
सुधा-मिक्ष्रित गरल, 
वह साकिया का जाम है, 
चलना हमारा काम है।