मेरी पसंदीदा कविताओं का संग्रह (Collection Of My Favourite Poems) Please send me more poems at avnishanand@gmail.com
Tuesday, June 7, 2011
कुछ अशआर ( Kuch Ashaar) - राम प्रसाद 'बिस्मिल' (Ram Prasad 'Bismil'),
हमेँ तोहमत लगाते हैँ जो हम फरियाद करते हैँ
ये कह कहकर बसर की उम्र हमने क़ैदे उल्फत मेँ
वो अब आज़ाद करते हैँ वो अब आज़ाद करते हैँ
सितम ऐसा नहीँ देखा जफ़ा ऐसी नहीँ देखी
वो चुप रहने को कहते हैँ जो हम फरियाद करते हैँ
Sunday, June 5, 2011
उठो धरा के अमर सपूतो ( Utho Dhara Ke Amar Sapooton) - द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी (Dwarika Prasad Maheshwari)
उठो धरा के अमर सपूतो
पुनः नया निर्माण करो ।
जन-जन के जीवन में फिर से
नई स्फूर्ति, नव प्राण भरो ।
नया प्रात है, नई बात है,
नई किरण है, ज्योति नई ।
नई उमंगें, नई तरंगे,
नई आस है, साँस नई ।
युग-युग के मुरझे सुमनों में,
नई-नई मुसकान भरो ।
डाल-डाल पर बैठ विहग कुछ
नए स्वरों में गाते हैं ।
गुन-गुन-गुन-गुन करते भौंरे
मस्त हुए मँडराते हैं ।
नवयुग की नूतन वीणा में
नया राग, नवगान भरो ।
कली-कली खिल रही इधर
वह फूल-फूल मुस्काया है ।
धरती माँ की आज हो रही
नई सुनहरी काया है ।
नूतन मंगलमयी ध्वनियों से
गुंजित जग-उद्यान करो ।
सरस्वती का पावन मंदिर
यह संपत्ति तुम्हारी है ।
तुम में से हर बालक इसका
रक्षक और पुजारी है ।
शत-शत दीपक जला ज्ञान के
नवयुग का आह्वान करो ।
उठो धरा के अमर सपूतो,
पुनः नया निर्माण करो ।
Saturday, June 4, 2011
शोक की संतान (Shok Ki Santaan) - रामधारी सिंह 'दिनकर' (Ramdhari Singh 'Dinkar'),
हृदय छोटा हो,
- तो शोक वहां नहीं समाएगा।
- तो शोक वहां नहीं समाएगा।
और दर्द दस्तक दिये बिना
- दरवाजे से लौट जाएगा।
- दरवाजे से लौट जाएगा।
टीस उसे उठती है,
- जिसका भाग्य खुलता है।
- जिसका भाग्य खुलता है।
वेदना गोद में उठाकर
- सबको निहाल नहीं करती,
- सबको निहाल नहीं करती,
जिसका पुण्य प्रबल होता है,
- वह अपने आसुओं से धुलता है।
- वह अपने आसुओं से धुलता है।
तुम तो नदी की धारा के साथ
- दौड़ रहे हो।
- दौड़ रहे हो।
उस सुख को कैसे समझोगे,
- जो हमें नदी को देखकर मिलता है।
- जो हमें नदी को देखकर मिलता है।
और वह फूल
- तुम्हें कैसे दिखाई देगा,
- तुम्हें कैसे दिखाई देगा,
जो हमारी झिलमिल
- अंधियाली में खिलता है?
- अंधियाली में खिलता है?
हम तुम्हारे लिये महल बनाते हैं
- तुम हमारी कुटिया को
- देखकर जलते हो।
- देखकर जलते हो।
- तुम हमारी कुटिया को
युगों से हमारा तुम्हारा
- यही संबंध रहा है।
- यही संबंध रहा है।
हम रास्ते में फूल बिछाते हैं
- तुम उन्हें मसलते हुए चलते हो।
- तुम उन्हें मसलते हुए चलते हो।
दुनिया में चाहे जो भी निजाम आए,
तुम पानी की बाढ़ में से
- सुखों को छान लोगे।
- सुखों को छान लोगे।
चाहे हिटलर ही
- आसन पर क्यों न बैठ जाए,
- आसन पर क्यों न बैठ जाए,
तुम उसे अपना आराध्य
- मान लोगे।
- मान लोगे।
मगर हम?
- तुम जी रहे हो,
- हम जीने की इच्छा को तोल रहे हैं।
- हम जीने की इच्छा को तोल रहे हैं।
- तुम जी रहे हो,
आयु तेजी से भागी जाती है
और हम अंधेरे में
- जीवन का अर्थ टटोल रहे हैं।
- जीवन का अर्थ टटोल रहे हैं।
असल में हम कवि नहीं,
- शोक की संतान हैं।
- शोक की संतान हैं।
हम गीत नहीं बनाते,
- पंक्तियों में वेदना के
- शिशुओं को जनते हैं।
- शिशुओं को जनते हैं।
- पंक्तियों में वेदना के
झरने का कलकल,
- पत्तों का मर्मर
- पत्तों का मर्मर
और फूलों की गुपचुप आवाज़,
- ये गरीब की आह से बनते हैं।
Friday, June 3, 2011
क्षण भर को क्यों प्यार किया था (Kshan Bhar Ko Kyoon Pyaar Kiya Tha) - हरिवंश राय 'बच्चन' (Harivansh Rai 'Bachchan')
अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर,
पलक संपुटों में मदिरा भर,
तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था?
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
‘यह अधिकार कहाँ से लाया!’
और न कुछ मैं कहने पाया -
मेरे अधरों पर निज अधरों का तुमने रख भार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
वह क्षण अमर हुआ जीवन में,
आज राग जो उठता मन में -
यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर में तुमने भर उद्गार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
Wednesday, June 1, 2011
इतने ऊँचे उठो ( Itne Unche Utho) - द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी (Dwarika Prasad Maheshwari)
इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है।
देखो इस सारी दुनिया को एक दृष्टि से
सिंचित करो धरा, समता की भाव वृष्टि से
जाति भेद की, धर्म-वेश की
काले गोरे रंग-द्वेष की
ज्वालाओं से जलते जग में
इतने शीतल बहो कि जितना मलय पवन है॥
नये हाथ से, वर्तमान का रूप सँवारो
नयी तूलिका से चित्रों के रंग उभारो
नये राग को नूतन स्वर दो
भाषा को नूतन अक्षर दो
युग की नयी मूर्ति-रचना में
इतने मौलिक बनो कि जितना स्वयं सृजन है॥
लो अतीत से उतना ही जितना पोषक है
जीर्ण-शीर्ण का मोह मृत्यु का ही द्योतक है
तोड़ो बन्धन, रुके न चिन्तन
गति, जीवन का सत्य चिरन्तन
धारा के शाश्वत प्रवाह में
इतने गतिमय बनो कि जितना परिवर्तन है।
अगर कहीं हो स्वर्ग, उसे धरती पर लाना
सूरज, चाँद, चाँदनी, तारे
सब हैं प्रतिपल साथ हमारे
दो कुरूप को रूप सलोना
इतने सुन्दर बनो कि जितना आकर्षण है॥