Wednesday, November 26, 2014

प्रभु तुम मेरे मन की जानो ( Prabhu Tum Mere Man Ki Jano) - सुभद्रा कुमारी चौहान (Subhadra Kumari Chauhan)

मैं अछूत हूँ, मंदिर में आने का मुझको अधिकार नहीं है।
किंतु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं है॥
प्यार असीम, अमिट है, फिर भी पास तुम्हारे आ न सकूँगी।
यह अपनी छोटी सी पूजा, चरणों तक पहुँचा न सकूँगी॥

इसीलिए इस अंधकार में, मैं छिपती-छिपती आई हूँ।
तेरे चरणों में खो जाऊँ, इतना व्याकुल मन लाई हूँ॥
तुम देखो पहिचान सको तो तुम मेरे मन को पहिचानो।
जग न भले ही समझे, मेरे प्रभु! मेरे मन की जानो॥

मेरा भी मन होता है, मैं पूजूँ तुमको, फूल चढ़ाऊँ।
और चरण-रज लेने को मैं चरणों के नीचे बिछ जाऊँ॥
मुझको भी अधिकार मिले वह, जो सबको अधिकार मिला है।
मुझको प्यार मिले, जो सबको देव! तुम्हारा प्यार मिला है॥

तुम सबके भगवान, कहो मंदिर में भेद-भाव कैसा?
हे मेरे पाषाण! पसीजो, बोलो क्यों होता ऐसा?
मैं गरीबिनी, किसी तरह से पूजा का सामान जुटाती।
बड़ी साध से तुझे पूजने, मंदिर के द्वारे तक आती॥

कह देता है किंतु पुजारी, यह तेरा भगवान नहीं है।
दूर कहीं मंदिर अछूत का और दूर भगवान कहीं है॥
मैं सुनती हूँ, जल उठती हूँ, मन में यह विद्रोही ज्वाला।
यह कठोरता, ईश्वर को भी जिसने टूक-टूक कर डाला॥

यह निर्मम समाज का बंधन, और अधिक अब सह न सकूँगी।
यह झूठा विश्वास, प्रतिष्ठा झूठी, इसमें रह न सकूँगी॥
ईश्वर भी दो हैं, यह मानूँ, मन मेरा तैयार नहीं है।
किंतु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं है॥

मेरा भी मन है जिसमें अनुराग भरा है, प्यार भरा है।
जग में कहीं बरस जाने को स्नेह और सत्कार भरा है॥
वही स्नेह, सत्कार, प्यार मैं आज तुम्हें देने आई हूँ।
और इतना तुमसे आश्वासन, मेरे प्रभु! लेने आई हूँ॥

तुम कह दो, तुमको उनकी इन बातों पर विश्वास नहीं है।
छुत-अछूत, धनी-निर्धन का भेद तुम्हारे पास नहीं है॥

Saturday, May 3, 2014

गरीबदास का शून्य (Garibdas Ka Shunya ) - अशोक चक्रधर ( Ashok Chakradhar)

घास काटकर नहर के पास,
कुछ उदास-उदास सा
चला जा रहा था
गरीबदास।
कि क्या हुआ अनायास...

दिखाई दिए सामने
दो मुस्टंडे,
जो अमीरों के लिए शरीफ़ थे
पर ग़रीबों के लिए गुंडे।
उनके हाथों में
तेल पिए हुए डंडे थे,
और खोपड़ियों में
हज़ारों हथकण्डे थे।
बोले-

ओ गरीबदास सुन !
अच्छा मुहूरत है
अच्छा सगुन।
हम तेरे दलिद्दर मिटाएंगे,
ग़रीबी की रेखा से
ऊपर उठाएंगे।
गरीबदास डर गया बिचारा,
उसने मन में विचारा-
इन्होंने गांव की
कितनी ही लड़कियां उठा दीं।
कितने ही लोग
ज़िंदगी से उठा दिए
अब मुझे उठाने वाले हैं,
आज तो
भगवान ही रखवाले हैं।

-हां भई गरीबदास
चुप क्यों है ?
देख मामला यों है
कि हम तुझे
ग़रीबी की रेखा से
ऊपर उठाएंगे,
रेखा नीचे रह जाएगी
तुझे ऊपर ले जाएंगे।

गरीबदास ने पूछा-
कित्ता ऊपर ?

-एक बित्ता ऊपर
पर घबराता क्यों है
ये तो ख़ुशी की बात है,
वरना क्या तू
और क्या तेरी औक़ात है ?
जानता है ग़रीबी की रेखा ?
-हजूर हमने तो
कभी नहीं देखा।

-हं हं, पगले,
घास पहले
नीचे रख ले।
गरीबदास !
तू आदमी मज़े का है,
देख सामने देख
वो ग़रीबी की रेखा है।

-कहां है हजूर ?

-वो कहां है हजूर ?
-वो देख,
सामने बहुत दूर।

-सामने तो
बंजर धरती है बेहिसाब,
यहां तो कोई
हेमामालिनी
या रेखा नईं है साब।
-वाह भई वाह,
सुभानल्लाह।
गरीबदास
तू बंदा शौकीन है,
और पसंद भी तेरी
बड़ी नमकीन है।
हेमामालिनी
और रेखा को
जानता है
ग़रीबी की रेखा को
नहीं जानता,
भई, मैं नहीं मानता।

-सच्ची मेरे उस्तादो !
मैं नईं जानता
आपई बता दो।
-अच्छा सामने देख
आसमान दिखता है ?

-दिखता है।

-धरती दिखती है ?

-ये दोनों जहां मिलते हैं
वो लाइन दिखती है ?
-दिखती है साब
इसे तो बहुत बार देखा है।

-बस गरीबदास
यही ग़रीबी की रेखा है।
सात जनम बीत जाएंगे
तू दौड़ता जाएगा,
दौड़ता जाएगा,
लेकिन वहां तक
कभी नहीं पहुंच पाएगा।
और जब
पहुंच ही नहीं पाएगा
तो उठ कैसे पाएगा ?
जहां है
वहीं-का-वहीं रह जाएगा।

लेकिन
तू अपना बच्चा है,
और मुहूरत भी
अच्छा है !
आधे से थोड़ा ज्यादा
कमीशन लेंगे
और तुझे
ग़रीबी की रेखा से
ऊपर उठा देंगे।

ग़रीबदास !
क्षितिज का ये नज़ारा
हट सकता है
पर क्षितिज की रेखा
नहीं हट सकती,
हमारे देश में
रेखा की ग़रीबी तो
मिट सकती है,
पर ग़रीबी की रेखा
नहीं मिट सकती।
तू अभी तक
इस बात से
आंखें मींचे है,
कि रेखा तेरे ऊपर है
और तू उसके नीचे है।
हम इसका उल्टा कर देंगे
तू ज़िंदगी के
लुफ्त उठाएगा,
रेखा नीचे होगी
तू रेखा से
ऊपर आ जाएगा।

गरीब भोला तो था ही
थोड़ा और भोला बन के,
बोला सहम के-
क्या गरीबी की रेखा
हमारे जमींदार साब के
चबूतरे जित्ती ऊंची होती है ?

-हां, क्यों नहीं बेटा।
ज़मींदार का चबूतरा तो
तेरा बाप की बपौती है
अबे इतनी ऊंची नहीं होती
रेखा ग़रीबी की,
वो तो समझ
सिर्फ़ इतनी ऊंची है
जितनी ऊंची है
पैर की एड़ी तेरी बीवी की।
जितना ऊंचा है
तेरी भैंस का खूंटा,
या जितना ऊंचा होता है
खेत में ठूंठा,
जितनी ऊंची होती है
परात में पिट्ठी,
या जितनी ऊंची होती है
तसले में मिट्टी
बस इतनी ही ऊंची होती है
ग़रीबी की रेखा,
पर इतना भी
ज़रा उठ के दिखा !

कूदेगा
पर धम्म से गिर जाएगा
एक सैकिण्ड भी
ग़रीबी की रेखा से
ऊपर नहीं रह पाएगा।
लेकिन हम तुझे
पूरे एक महीने के लिए
उठा देंगे,
खूंटे की
ऊंचाई पे बिठा देंगे।
बाद में कहेगा
अहा क्या सुख भोगा...।

गरीबदास बोला-
लेकिन करना क्या होगा ?
-बताते हैं
बताते हैं,
अभी असली मुद्दे पर आते हैं।
पहले बता
क्यों लाया है
ये घास ?

-हजूर,
एक भैंस है हमारे पास।
तेरी अपनी कमाई की है ?

नईं हजूर !
जोरू के भाई की है।

सीधे क्यों नहीं बोलता कि
साले की है,
मतलब ये कि
तेरे ही कसाले की है।
अच्छा,
उसका एक कान ले आ
काट के,
पैसे मिलेंगे
तो मौज करेंगे बांट के।
भैंस के कान से पैसे,
हजूर ऐसा कैसे ?

ये एक अलग कहानी है,
तुझे क्या बतानी है !
आई.आर.डी.पी. का लोन मिलता है
उससे तो भैंस को
ख़रीदा हुआ दिखाएंगे
फिर कान काट के ले जाएंगे
और भैंस को मरा बताएंगे
बीमे की रकम ले आएंगे
आधा अधिकारी खाएंगे
आधे में से
कुछ हम पचाएंगे,
बाक़ी से
तुझे
और तेरे साले को
ग़रीबी की रेखा से
ऊपर उठाएंगे।

साला बोला-
जान दे दूंगा
पर कान ना देने का।

क्यों ना देने का ?

-पहले तो वो
काटने ई ना देगी
अड़ जाएगी,
दूसरी बात ये कि
कान कटने से
मेरी भैंस की
सो बिगड़ जाएगी।
अच्छा, तो...
शो के चक्कर में
कान ना देगा,
तो क्या अपनी भैंस को
ब्यूटी कम्पीटीशन में
जापान भेजेगा ?
कौन से लड़के वाले आ रहे हैं
तेरी भैंस को देखने
कि शादी नहीं हो पाएगी ?
अरे भैंस तो
तेरे घर में ही रहेगी
बाहर थोड़े ही जाएगी।

और कौन सी
कुंआरी है तेरी भैंस
कि मरा ही जा रहा है,
अबे कान मांगा है
मकान थोड़े ही मांगा है
जो घबरा रहा है।
कान कटने से
क्या दूध देना
बंद कर देगी,
या सुनना बंद कर देगी ?
अरे ओ करम के छाते !
हज़ारों साल हो गए
भैंस के आगे बीन बजाते।
आज तक तो उसने
डिस्को नहीं दिखाया,
तेरी समझ में
आया कि नहीं आया ?
अरे कोई पर थोड़े ही
काट रहे हैं
कि उड़ नहीं पाएगा परिन्दा,
सिर्फ़ कान काटेंगे
भैंस तेरी
ज्यों की त्यों ज़िंदा।

ख़ैर,
जब गरीबदास ने
साले को
कान के बारे में
कान में समझाया,
और एक मुस्टंडे ने
तेल पिया डंडा दिखाया,
तो साला मान गया,
और भैंस का
एक कान गया।

इसका हुआ अच्छा नतीजा,
ग़रीबी की रेखा से
ऊपर आ गए
साले और जीजा।
चार हज़ार में से
चार सौ पा गए,
मज़े आ गए।

एक-एक धोती का जोड़ा
दाल आटा थोड़ा-थोड़ा
एक एक गुड़ की भेली
और एक एक बनियान ले ली।

बचे-खुचे रुपयों की
ताड़ी चढ़ा गए,
और दसवें ही दिन
ग़रीबी की रेखा के
नीचे आ गए।

Friday, May 2, 2014

विवशता (Vivashtaa) - शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ (Shivmangal Singh 'Suman')

मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार
पथ ही मुड़ गया था।

गति मिलि मैं चल पड़ा
पथ पर कहीं रुकना मना था,
राह अनदेखी, अजाना देश
संगी अनसुना था।
चाँद सूरज की तरह चलता
न जाना रातदिन है,
किस तरह हम तुम गए मिल
आज भी कहना कठिन है,
तन न आया माँगने अभिसार
मन ही जुड़ गया था।

देख मेरे पंख चल, गतिमय
लता भी लहलहाई
पत्र आँचल में छिपाए मुख
कली भी मुस्कुराई।
एक क्षण को थम गए डैने
समझ विश्राम का पल
पर प्रबल संघर्ष बनकर
आ गई आँधी सदलबल।
डाल झूमी, पर न टूटी
किंतु पंछी उड़ गया था।

हिमालय (Himalaya) - रामधारी सिंह 'दिनकर' (Ramdhari Singh 'Dinkar')

मेरे नगपति! मेरे विशाल!

साकार, दिव्य, गौरव विराट्,
पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल!
मेरी जननी के हिम-किरीट!
मेरे भारत के दिव्य भाल!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त,
युग-युग गर्वोन्नत, नित महान,
निस्सीम व्योम में तान रहा
युग से किस महिमा का वितान?
कैसी अखंड यह चिर-समाधि?
यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान?
तू महाशून्य में खोज रहा
किस जटिल समस्या का निदान?
उलझन का कैसा विषम जाल?
मेरे नगपति! मेरे विशाल!


ओ, मौन, तपस्या-लीन यती!
पल भर को तो कर दृगुन्मेष!
रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल
है तड़प रहा पद पर स्वदेश।
सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र,
गंगा, यमुना की अमिय-धार
जिस पुण्यभूमि की ओर बही
तेरी विगलित करुणा उदार,
जिसके द्वारों पर खड़ा क्रान्त
सीमापति! तू ने की पुकार,
‘पद-दलित इसे करना पीछे
पहले ले मेरा सिर उतार।’
उस पुण्यभूमि पर आज तपी!
रे, आन पड़ा संकट कराल,
व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे
डस रहे चतुर्दिक विविध व्याल।
मेरे नगपति! मेरे विशाल!


कितनी मणियाँ लुट गईं? मिटा
कितना मेरा वैभव अशेष!
तू ध्यान-मग्न ही रहा, इधर
वीरान हुआ प्यारा स्वदेश।
वैशाली के भग्नावशेष से
पूछ लिच्छवी-शान कहाँ?
ओ री उदास गण्डकी! बता
विद्यापति कवि के गान कहाँ?
तू तरुण देश से पूछ अरे,
गूँजा कैसा यह ध्वंस-राग?
अम्बुधि-अन्तस्तल-बीच छिपी
यह सुलग रही है कौन आग?
प्राची के प्रांगण-बीच देख,
जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल,
तू सिंहनाद कर जाग तपी!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!


रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर,
पर, फिर हमें गाण्डीव-गदा,
लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।
कह दे शंकर से, आज करें
वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार।
सारे भारत में गूँज उठे,
‘हर-हर-बम’ का फिर महोच्चार।
ले अंगडाई हिल उठे धरा
कर निज विराट स्वर में निनाद
तू शैलीराट हुँकार भरे
फट जाए कुहा, भागे प्रमाद
तू मौन त्याग, कर सिंहनाद
रे तपी आज तप का न काल
नवयुग-शंखध्वनि जगा रही
तू जाग, जाग, मेरे विशाल

Thursday, May 1, 2014

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं (Main Toofanon Mein Chalne Ka Aadi Hoon) - गोपालदास 'नीरज'(Gopaldas 'Neeraj')

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..

हैं फ़ूल रोकते, काटें मुझे चलाते..
मरुस्थल, पहाड चलने की चाह बढाते..
सच कहता हूं जब मुश्किलें ना होती हैं..
मेरे पग तब चलने मे भी शर्माते..
मेरे संग चलने लगें हवायें जिससे..
तुम पथ के कण-कण को तूफ़ान करो..

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..

अंगार अधर पे धर मैं मुस्काया हूं..
मैं मर्घट से ज़िन्दगी बुला के लाया हूं..
हूं आंख-मिचौनी खेल चला किस्मत से..
सौ बार म्रत्यु के गले चूम आया हूं..
है नहीं स्वीकार दया अपनी भी..
तुम मत मुझपर कोई एह्सान करो..

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..

शर्म के जल से राह सदा सिंचती है..
गती की मशाल आंधी मैं ही हंसती है..
शोलो से ही श्रिंगार पथिक का होता है..
मंजिल की मांग लहू से ही सजती है..
पग में गती आती है, छाले छिलने से..
तुम पग-पग पर जलती चट्टान धरो..

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..

फूलों से जग आसान नहीं होता है..
रुकने से पग गतीवान नहीं होता है..
अवरोध नहीं तो संभव नहीं प्रगती भी..
है नाश जहां निर्मम वहीं होता है..
मैं बसा सुकून नव-स्वर्ग “धरा” पर जिससे..
तुम मेरी हर बस्ती वीरान करो..

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..

मैं पन्थी तूफ़ानों मे राह बनाता..
मेरा दुनिया से केवल इतना नाता..
वेह मुझे रोकती है अवरोध बिछाकर..
मैं ठोकर उसे लगाकर बढ्ता जाता..
मैं ठुकरा सकूं तुम्हें भी हंसकर जिससे..
तुम मेरा मन-मानस पाशाण करो..

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..

Wednesday, April 30, 2014

जलियाँवाला बाग में बसंत (Jallianwala Bagh Mein Basant) - सुभद्राकुमारी चौहान (Subhadra Kumari Chauhan)

यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।

कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,
वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।

परिमल-हीन पराग दाग सा बना पड़ा है,
हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।

ओ, प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना,
यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।

वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना,
दुःख की आहें संग उड़ा कर मत ले जाना।

कोकिल गावें, किन्तु राग रोने का गावें,
भ्रमर करें गुंजार कष्ट की कथा सुनावें।

लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले,
तो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ कुछ गीले।

किन्तु न तुम उपहार भाव आ कर दिखलाना,
स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना।

कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा कर,
कलियाँ उनके लिये गिराना थोड़ी ला कर।

आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं,
अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं।

कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना,
कर के उनकी याद अश्रु के ओस बहाना।

तड़प तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खा कर,
शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जा कर।

यह सब करना, किन्तु यहाँ मत शोर मचाना,
यह है शोक-स्थान बहुत धीरे से आना।

Tuesday, April 29, 2014

लेन-देन (Len Den) - रामधारी सिंह 'दिनकर' (Ramdhari Singh 'Dinkar')

लेन-देन का हिसाब
लंबा और पुराना है।

जिनका कर्ज हमने खाया था,
उनका बाकी हम चुकाने आये हैं।
और जिन्होंने हमारा कर्ज खाया था,
उनसे हम अपना हक पाने आये हैं।

लेन-देन का व्यापार अभी लंबा चलेगा।
जीवन अभी कई बार पैदा होगा
और कई बार जलेगा।

और लेन-देन का सारा व्यापार
जब चुक जायेगा,
ईश्वर हमसे खुद कहेगा -

तुम्हार एक पावना मुझ पर भी है,
आओ, उसे ग्रहण करो।
अपना रूप छोड़ो,
मेरा स्वरूप वरण करो।

Monday, April 28, 2014

मेरा नया बचपन (Mera Naya Bachpan) - सुभद्राकुमारी चौहान (Subhadra Kumari Chauhan)

बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥

चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?

ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥

किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥

रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥

मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥

दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥

वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥

लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥

दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥

मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥

सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।
प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥

माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥

किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥

आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥

वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?

मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥

'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥

पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥

मैंने पूछा 'यह क्या लायी?' बोल उठी वह 'माँ, काओ'।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'॥

पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥

मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥

जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥

Sunday, April 27, 2014

विदा (Vida) - सुभद्राकुमारी चौहान (Subhadra Kumari Chauhan)

अपने काले अवगुंठन को
रजनी आज हटाना मत।
जला चुकी हो नभ में जो
ये दीपक इन्हें बुझाना मत॥

सजनि! विश्व में आज
तना रहने देना यह तिमिर वितान।
ऊषा के उज्ज्वल अंचल में
आज न छिपना अरी सुजान॥

सखि! प्रभात की लाली में
छिन जाएगी मेरी लाली।
इसीलिए कस कर लपेट लो,
तुम अपनी चादर काली॥

किसी तरह भी रोको, रोको,
सखि! मुझ निधनी के धन को।
आह! रो रहा रोम-रोम
फिर कैसे समझाऊँ मन को॥

आओ आज विकलते!
जग की पीड़ाएं न्यारी-न्यारी।
मेरे आकुल प्राण जला दो,
आओ तुम बारी-बारी॥

ज्योति नष्ट कर दो नैनों की,
लख न सकूँ उनका जाना।
फिर मेरे निष्ठुर से कहना,
कर लें वे भी मनमाना॥

Saturday, April 26, 2014

वीरों का कैसा हो बसंत (Veeron Ka Kaisa Ho Basant) - सुभद्रा कुमारी चौहान (Subhadra Kumari Chauhan)

आ रही हिमालय से पुकार
है उदधि गजरता बार-बार
प्राची पश्चिम भू नभ अपार
सब पूछ रहे हैं दिग-दिगंत-
वीरों का कैसा हो बसंत

फूली सरसों ने दिया रंग
मधु लेकर आ पहुँचा अनंग
वधु वसुधा पुलकित अंग-अंग
है वीर देश में किंतुं कंत-
वीरों का कैसा हो वसंत

भर रही कोकिला इधर तान
मारू बाजे पर उधर गान
है रंग और रण का विधान
मिलने को आए हैं आदि अंत-
वीरों का कैसा हो वसंत

गलबाँहें हों या हो कृपाण
चलचितवन हो या धनुषबाण
हो रसविलास या दलितत्राण
अब यही समस्या है दुरंत-
वीरों का कैसा हो वसंत

कह दे अतीत अब मौन त्याग
लंके तुझमें क्यों लगी आग
ऐ कुरुक्षेत्र अब जाग-जाग
बतला अपने अनुभव अनंत-
वीरों का कैसा हो वसंत

हल्दीघाटी के शिला खंड
ऐ दुर्ग सिंहगढ़ के प्रचंड
राणा ताना का कर घमंड
दो जगा आज स्मृतियाँ ज्वलंत-
वीरों का कैसा हो बसंत

भूषण अथवा कवि चंद नहीं
बिजली भर दे वह छंद नहीं
है कलम बँधी स्वच्छंद नहीं
फिर हमें बताए कौन? हंत-
वीरों का कैसा हो बसंत