हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती
'अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़- प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो!'
असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के- रुको न शूर साहसी!
अराति सैन्य सिंधु में, सुवाड़वाग्नि से जलो,
प्रवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो, बढ़े चलो!
आनन्द आ गया भाई, सारे दिन की थकावट फुर्र हो गयी। आभार।
ReplyDeleteअजीत जी, टिप्पणी के लिए धन्यवाद. आभार के असली हकदार तो जयशंकर प्रसाद जी हैं जिन्होने यह ज़बरदस्त रचना की है.
ReplyDeletevery nice and motivating
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